मैं इंतज़ार में हूँ कब ये सर्द फ़िज़ाएं जिस्म को गलाने लगेंगी
मेरे लिए तेरा एहसास ही गर्मजोशी का हिसाब है
शोर मेरे दिल में होता है खामोश ये सारी दिशाएं हैं
लगता है इन्हे कोई आवाज़ नहीं देता
किस्से क्या कहूं कि ज़िन्दगी एक कहानी बन गयी
बस चाहता हूँ एक पन्ना उसमे तेरे नाम का भी हो
मिटटी को माथे से लगाया तो याद आया
सरहद पर मेरा दोस्त है वतन की हिफाज़त में
वो कहते हैं कि तू क्या हासिल करेगा ज़िन्दगी में
मैंने कहा ये ज़िन्दगी क्या किसी इनाम से कम है
कौन कहता है कि कोई मंज़िल नहीं है तुम्हारी
ये ज़िन्दगी किसी मुकाम से कम नहीं है
~ राजेश बलूनी ‘प्रतिबिम्ब’