चेहरा – बेचेहरा
मेरी आवाज दरिया में खो सी गई है अँधेरे में रोशनी भी सो सी गई
मेरी आवाज दरिया में खो सी गई है अँधेरे में रोशनी भी सो सी गई
तू कहती है कि मैं तेरा ख्वाब हूँ फिर क्यों तू मुझे हकीकत में नहीं
एक स्याह को तरसते वो कुछ कह नहीं पाए कुछ सुर्ख लाली लगने को थी
मैं टूट नहीं सकता घनघोर पीडाओं का जाल मुझे फँसा रहा है अथाह प्रसन्नता मेरे
मुझे इल्म नहीं है कि तू मुझसे नाराज़ है शायद तेरे गुस्से का यही आगाज़
वक़्त अपने तेवर दिखाने से कहाँ बाज़ आता है जब अच्छा हो तो अनजान भी
दीवार-ओ-दर में तेरा निशान मिलता है तू खो गया कहीं, और घर सुनसान मिलता है
भोर ढल गयी, आई संध्या धीर-धीरे घनी हुई है रतिया चमके अम्बर में अगणित तारे