सजे उस बाग में मेरे दिल की क्यारी
जहां तेरे कदमों की आहट पड़ी हो
महज कुछ पलों का ही फासला था
तय करते करते उम्र ही गुज़र गई
कहीं शोर होता तो लपक लेता
यहां तो चुप्पी से दिन रात भरे हैं
गौर करना अब मेरी आदत नहीं
कितने लोगों ने मुझे अनदेखा किया
सांस तो इत्मीनान की हवा लाती है
मगर जिस्म फिर भी सिहरन से भरा है
तिरे पहलू में अपनी तबीयत छोड़ दूं
हाल ये है कि अब सांस भी नहीं रही
तकल्लुफ क्या करूं कि कोई नहीं है
अब तो मेहमां भी आने से कतराते हैं
मेरे मिज़ाज की फिक्र न करो
बस अपने तेवर को संभाल कर रखो
बदजुबानी नश्तर के जैसे चुभती है
शायद इसका ज़हर से कोई नाता है
~राजेश बलूनी प्रतिबिंब