गाँव की होली: बदलते समय का आईना

गाँव की होली

पिछले कुछ वर्षों में लोगों की व्यवहारिकता और सामाजिकता में जितनी तेजी से बदलाव आया है, वह सोचनीय है। रोजगार और शिक्षा के कारण गाँवों से पलायन बहुत तेज़ी से हो रहा है। अब गाँवों में वही लोग बचे हैं, जो या तो वृद्ध हो चुके हैं, या जिनकी सरकारी नौकरी अथवा व्यवसाय गाँव के आस-पास हैं। लगभग सभी नौजवान गाँव छोड़ चुके हैं। आँगन, गलियाँ और खलिहान अब सूने पड़े रहते हैं।

सबसे दुखद बात यह है कि लोग अब पर्व-त्योहारों पर भी गाँव लौटना भूलते जा रहे हैं। होली और छठ पूजा, जो कभी गाँवों की रौनक हुआ करती थीं, अब फीकी पड़ती जा रही हैं। इस बार की होली में कई घर वीरान पड़े मिले। कुछ घरों में बुजुर्ग अकेले बैठे दिखे, जबकि उनके परिवार के सदस्य दर्जनों में हैं। एक समय था जब उनके घर लोगों से गुलजार रहते थे, पर आज उनके पास बैठकर बात करने वाला भी कोई नहीं।

सबसे अधिक कष्ट तब हुआ जब देखा कि गाँव से महज़ एक घंटे की दूरी पर बसे लोग भी होली पर गाँव आना जरूरी नहीं समझते। कुछ लोग छुट्टी मिलने के बावजूद भी अपने गाँव की बजाय ससुराल चले गए। यह दृश्य देखना बहुत दुखद लगा।

मैं मानता हूँ कि निजी नौकरियों में छुट्टी मिलना आसान नहीं, और यदि मिल भी जाए तो ट्रेन का टिकट पाना मुश्किल होता है। लेकिन क्या साल में कम-से-कम दो बार (छठ पूजा और होली) गाँव आना संभव नहीं? क्या अपने घर-आँगन और परिजनों को देखने के लिए इतना समय भी नहीं निकाल सकते? कोरोना महामारी के समय जब संकट आया था, तो अधिकतर लोग शहर छोड़कर गाँव लौट आए थे, क्योंकि उन्हें लगा कि असली सुरक्षा वहीं है। आज नहीं तो कल, यह शहरों की अंधी दौड़ जरूर थमेगी, और तब लोग फिर गाँव की ओर लौटेंगे।

मैं यह नहीं कहता कि आप अपनी नौकरी छोड़कर गाँव में बस जाएँ, लेकिन व्यस्त जीवन में से कुछ पल निकालकर साल में कुछ बार गाँव ज़रूर आएँ, ताकि गाँव फिर से जीवंत हो सके। जहाँ चाह, वहाँ राह – अगर आप सच में चाहेंगे, तो छुट्टी भी मिल जाएगी और ट्रेन का टिकट भी। अपनी जड़ों से जुड़े रहिए, यही आपको जीवन में संतुष्टि और सच्ची सफलता दिलाएगा।

तरक्की की कोई सीमा नहीं होती, लेकिन यह भी याद रखिए कि, सफलता वही है, जो आपको अपने लोगों से दूर न कर दे। कई बार सुनने में आता है कि माता-पिता अपने बच्चों को विदेश भेजते हैं, वे वहीं पढ़ाई कर बस जाते हैं, और फिर कभी लौटकर माता-पिता को देखने भी नहीं आते। उनके अंतिम समय में भी साथ नहीं होते। यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है! वह तरक्की ही किस काम की, जो इंसान को अपने ही माता-पिता से दूर कर दे?

बेशक! हम शहरों में फल-फूल रहे हैं, मगर हमारी जड़ें गाँव में ही है। इसलिए, अपनी संस्कृति, अपने संस्कारों और अपनी जड़ों से जुड़े रहिए। क्योंकि जो पेड़ अपनी जड़ों से कट जाता है, वह ज्यादा समय तक हरा-भरा नहीं रह सकता

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सांझी बात एक विमर्श बूटी है जीवन के विभिन्न आयामों और परिस्थितियों की। अवलोकन कीजिए, मंथन कीजिए और रस लीजिए वृहत्तर अनुभवों का अपने आस पास।

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