शोर फैलकर खुश हुआ है आदमीं
जानता भी है नहीं क्या हो रहा
जिस जगह पर थी कभी कोई नदी
उस जगह पर खून का बिस्तर बना
जल रही है वो नई चिंगारियां
जिनके माथे पर सजी मशाल है
गिर पड़ेगी अब यहाँ पर बिजलियाँ
तब यहाँ पर आदमी कंकाल है
धूप की गर्मी से झुलसी ज़िन्दगी
छावं का गलीचा इसको चाहिए
धुआँ ही धुआँ फैला है हर डगर
साफ सुथरा एक सवेरा चाहिए
आज जो कोई भी सच को बोलेगा
उसका जीवन मृत्यु की खाड़ी में है
द्वेष, धोखा, पाप जिसकी रागिनी
खुशियाँ खिलती उसकी ही क्यारी में है
मन को शीतल रख सको तो बात है
अभी तो जीवन की पहली पारी है
फैसले में सच का लहजा जोड़ना
इरादों में धधकती चिंगारी है
अब नई किरणों से सूरज सजेगा
सहज प्रयासों का ये प्रभात है
अथक रहना मानव सेवा के लिए
यही जीवन लक्ष्य और सौगात है