ये क्या प्रतिकूल परिस्थितियां है मेरे जीवन में,
कहीं भी स्वतंत्रता का भान नहीं,
बस जीवन व्यतीत हो रहा एक दास की भांति,
जहां निर्ममता से आपके विचारों, जिज्ञासा,
और इच्छाओं को कुचला जाता है,
जहां प्रतिकार करने पर,
आप पर अमर्यादित होने का ठप्पा लग जाता है,
परीक्षा तो ले रहा है ईश्वर इस बात से अवगत हूं मैं,
मगर ये अवधि कुछ लंबी हो चली है ,
निश्चित रूप से मैंने जीवन में बहुत से निर्णय लिए
जो संभवतः मेरे लिए हानिकारक सिद्ध हुए,
इसलिए नही कि वो सारे निर्णय मैने लिए
बल्कि इसलिए कि वो मुझ पर थोपे गए
और अब मैं इतना मूर्ख और अकर्मण्य हूं
कि कोई स्वतंत्र निश्चय नहीं कर पाता,
मेरे स्वप्न धराशाई हो चुके हैं
क्योंकि उन्हें पूरा करना अब मेरे बस में नहीं,
समाज की बाध्यता,
परिवार की विवशता
और मेरी अकर्मण्यता के कारण,
मन क्यों शांत नहीं रहता,
क्या उलझन है मन में,
क्या ये समाप्ति का चिन्ह है,
हो भी सकता है,
सहस्र द्वंद पाले हुए हैं,
असंख्य मृगतृष्णायें प्रतिदिन
मुझे लक्ष्य से विमुख कर रही हैं,
तापमान उच्च स्तर पर है
और शीतल छाया का अभी अकाल है,
अनगिनत प्रश्नों का अंबार लगा है ,
सृजन जितना जटिल है,
विनाश उतना ही सरल;
हालांकि वो असहज कर देता है,
एक स्थिर मानव के लिए मौन की क्या व्याख्या है?
संभवतः मौन अर्थात असमंजस, या फिर निरूतरता,
नहीं नहीं!
विकल्पहीनता या लक्ष्यविहीन जीवन भी तो हो सकता है,
ये तो समय के गर्भ में अदृश्य है तथा
इतिहास अपने अनुसार
इस बात का आकलन करेगा।
मगर सत्य क्या है?
जो हो रहा है क्या वो सत्य है या
जो अंत में अग्निशय्या पर होगा वो सत्य है, कोई अनुमान नहीं है,
“सूखे निर्झर के
समीप जब पथरीली
पवन की बयार गुजरती है,
तो खेतों, खलिहानों,
बाग क्यारियों में
खर पतवार स्वतः उग जाता है“,
कदाचित ऊंची ऊंची महत्वाकांक्षाएं,
जीवन में अशांति और
उथल पुथल की जननी है,
जब तक एक भी श्वास शेष है
कर्तव्यों की अवहेलना करना
अपने अंतर्मन से प्रवंचना करना है,
बस इतना विदित रहे कि संबंधों के मोह में,
इच्छाओं के मद में,
सम्मान के लोभ में तथा
कामेंद्रियों की वासना में
अपने आस्तित्व को
तुम विस्मृत न कर दो,
निश्चित तो केवल मृत्यु है,
और अनिश्चित ये जीवन और संसार
के अनेकानेक क्रियाकलाप हैं।