मैं टूट नहीं सकता
घनघोर पीडाओं का जाल मुझे फँसा रहा है
अथाह प्रसन्नता मेरे अभिमान को सुसज्जित करती है
असंख्य अश्रुकण मेरे नयनों से बहकर विलाप निद्रा मे हैं
मैं लड़खड़ा रहा हूँ, मैं थक रहा हूँ, मैं चुप रहा हूँ अरे
नहीं कुछ भी हो पर मैं टूट नहीं सकता
कितने मधुर गीत चौपालों में गाए थे
कुछ इसी तरह से स्मृति के क्षण सजाये थे
अनवरत चलता हुआ पथिक कहाँ थका था
कंटकों से आगामी मार्ग सजा था
सहस्र प्रयासों से फलीभूत ध्येय चूक नहीं सकता
मैं मर सकता, मैं लड़ सकता हूँ पर टूट नहीं सकता
सांध्यकालीन गीत का मर्म कौन जाने
शोकाकुल है रात्रि, नीर-छीर बहाने
शांति की स्थापना का मूल्य भी ऊंचा है
युद्ध-भूमि में कराहता शव अभी गूंजा है
एक पग आगे चला फिर मुड़ नहीं सकता
मैं टूट नहीं सकता
रणभूमि में क्षत -विक्षत शव पड़े थे
जिनके शौर्ये के यहां झंडे गड़े थे
जिसने धर्म के लिए अपने स्व-हित का त्याग किया
उसको फिर असीम स्नेह और सत्कार मिला
मुझे किसी स्नेह या आदर का मोह नहीं
भटक जाऊं अपने गंतव्य से ऐसी कोई टोह नहीं
अपने लक्ष्य से संलग्न होकर अब छूट नहीं सकता
यह निश्चित है कि मैं अब टूट नहीं सकता
घात लगाए खड़े हैं व्यभिचारी यहाँ
कोमल मुस्कानो को मसलते अत्याचारी यहाँ
अब संहार होगा निम्न – विक्षिप्त शैतानो का
शांति सन्देश नहीं, समय है अर्जुन – बाणों का
जो चीरती उनकी छाती को लहूलुहान करेगा
हर माता, भगिनी, पुत्री को सम्बल मिलेगा
जब उन छुद्र व्यक्तियों को दंड मिलेगा
न्याय के पुरोधा अब उचित न्याय करो
अन्यथा वंचित प्रजा का क्रोधित प्रहार सहो
इस अन्यायपूर्ण प्रणाली के आगे झुक नहीं सकता
इस राष्ट्र का हौसला अब टूट नहीं सकता